नई दिल्ली। उसके साथ जब ये हादसा हुआ था, तब उसकी उम्र 19 साल थी। कम उम्र के बावजूद वह जानती थी कि घर की पूरी जिम्मेदारी उसे ही उठानी है। वो नौकरी कर परिवार का खर्च उठा रही थी। मां अपनी बेटी को याद करते हुए कहती हैं- वह बहुत सपने देखती थी। कहती थी जल्द से जल्द अपना घर खरीदना है। हमने भी कभी उस पर कोई पाबंदी नहीं लगाई। काम से लौटती थी तो तेजी से पास आकर कहती थी- मां मैं आ गई। 9 फरवरी 2012 को काम से घर लौटते वक्त उसे अगवा कर लिया गया था। तीन दिन तक गैंगरेप के बाद उनकी हत्या कर दी गई। उनका परिवार दिल्ली के छावला में एक छोटे से किराये के कमरे में रहता है। पिता सिक्योरिटी गार्ड हैं और बेटी की मौत के बाद रिटायर हो जाने की उम्र में भी परिवार चलाने के लिए नौकरी कर रहे हैं। 9 फरवरी 2012 की शाम पीड़ित रोज की तरह काम से घर लौट रही थी। सूरज डूब चुका था, कुछ धुंधली रोशनी रह गई थी। बस से उतरते ही उसके कदम तेज हो गए थे, 20 मिनट का ये पैदल रास्ता उसे जल्दी तय करना था, लेकिन उस दिन दरिंदों की उस पर नजर थी। लाल रंग की एक इंडिका कार में उसे अगवा कर लिया गया।
दरिंदों ने हरियाणा ले जाकर तीन दिन तक उससे गैंगरेप किया। फिर सरसों के खेत में उसे मरने के लिए छोड़ दिया। पुलिस रिकॉर्ड बताते हैं वह दरिंदों से जान की भीख मांगती रही, लेकिन हवस मिटाने के बाद भी उनका दिल नहीं पसीजा और उन्होंने उसे ऐसी दर्दनाक मौत दी कि लिखते हुए हाथ कांपने लगते हैं। उसकी आंखों में तेजाब डाल दिया गया। उसके नाजुक अंगों से शराब की बोतल मिली थी। पाना गरम करके उसके शरीर को दाग दिया गया। इस केस में फरवरी 2014 में निचली अदालत ने रवि, राहुल और विनोद को दोषी पाया था। तीनों को फांसी की सजा सुनाई गई थी। अगस्त 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी फांसी की सजा को बरकरार रखा। तब अदालत ने कहा था- ये वो हिंसक जानवर हैं, जो सड़कों पर शिकार ढूंढते हैं। सोमवार को इन 3 आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पीड़ित परिवार के सदस्य हैरान हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि बेटी को इंसाफ दिलाने के लिए अब कहां जाएं। 19 साल की बेटी के साथ गैंगरेप कर उसकी हत्या करने वाले आरोपियों के खिलाफ एक मां ने 10 साल लड़ाई लड़ी। आज नजरों के सामने सुप्रीम कोर्ट से उन्हें बरी होते देख वह ठीक से रो भी नहीं पा रही है।
हाईकोर्ट ने कहा था- ये वो हिंसक जानवर हैं, जो सड़कों पर शिकार ढूंढते हैं
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद लड़की की मां ने कहा कि कई मुश्किलें हम पहले से झेल रहे थे पर अदालत का ये अन्याय नहीं झेला जा रहा। परिवार में आर्थिक परेशानियां हैं उन्हें किसी तरह से झेल रहे हैं। इतनी दरिंदगी मेरी बेटी के साथ हुई। अदालत ने ऐसे दरिंदों को छोड़ दिया। हमें उम्मीद थी कि न्याय मिलेगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने हमें तोड़ दिया है। अभी समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें। हमारी सोचने की ताकत खत्म हो गई है। इस मामले में साथ देने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता कहती हैं कि हमने सोचा भी नहीं था कि अदालत ऐसा फैसला करेगी। हम ज्यादा से ज्यादा ये सोच रहे थे कि हो सकता है फांसी की सजा को कोर्ट उम्रकैद में बदल दे। हालांकि, हम उसके लिए भी तैयार नहीं थे। हम उसके खिलाफ भी आवाज उठाते। हम ये मानते हैं कि ऐसे दरिंदों को फांसी ही होनी चाहिए। ये पता चला उन्हें बरी कर दिया गया है तो हमें विश्वास ही नहीं हुआ। इस फैसले से न्यायपालिका में हमारा भरोसा भी टूटा है। उम्मीद नहीं थी कि अदालत ऐसा कर सकती है। हम उस बच्ची की जान तो नहीं बचा सके, लेकिन कम से कम न्याय तो दिला ही सकते थे। अब तो हम वह भी नहीं कर पाए। अगर ऐसा ही होगा तो लड़कियां कैसे सुरक्षित रहेंगी। अपराधियों में खौफ कैसे बैठेगा।